कि हिंदी यहाँ बेअसर हो रही है ।
हिंदी दिवस पर ही हिंदी की पूजा ,
इसे देख हिंदी बहुत रो रही है।
हर एक देश की भाषा है अपनी ,
उसे देशवासी है सर पर बिठाते ,
मगर कैसी निरपेक्षता अपने घर में ,
हम अपनी ज़ुबा को स्वयं भूल जाते।
मिला सिर्फ एक दिन ही पूरे बरस में ,
यह हिंदी की क्या दुर्दशा हो रही है ।
कि जिसके लिए खून इतने बहाए,
जवानों ने अपने गले भी कटवाए ,
कि जिसके लिए सरज़मी लाल कर दी ,
जवानी भी पुरखो ने पामाल कर दी ।
तड़पते थे कहने को हम जिसको अपनी ,
वही हिंदी भाषा कहाँ खो रही है।
यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
लेखक :- अज्ञात
जय हिंद जय भारत
जवाब देंहटाएंतड़पते थे कहने को हम जिसको अपनी ,
जवाब देंहटाएंवही हिंदी भाषा कहाँ खो रही है।
यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
बढिया अभिव्यक्ति !!
आपका बहुत बहुत धन्यवाद आप ऐसे ही प्रोत्साहन देते रहिएगा आपका सहयोग बहुत ही अनमोल है .....
जवाब देंहटाएंआपका अपना योगेश चन्द्र उप्रेती
Bahut bahut achhi bat kahi hai...Ap jaise chintansheel logo ki is samaj ko jaroorat hai.Aise hi apna prayas jari rakhiyega.
जवाब देंहटाएंएकदम सही बात कही है.बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति.उम्मीद है ऐसे ही अच्छी अच्छी रचनायें आपकी कलम से निकलती रहेंगी.आप जैसे चिंतनशील रचनाकारों की समाज को बहुत जरूरत है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद मासूम जी बस आप लोगो का ऐसे ही साथ चाहियें. . . नव वर्ष मंगल मय हो
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