शुक्रवार, 16 मई 2025
कोई समझता क्यों नहीं
मेरी ख़ामोशियों को कोई, समझता क्यों नहीं
दिल की हलचलों को कोई, समझता क्यों नहीं
उम्र गुज़र रही हैँ मेरी, लोगों में खुशियां लुटा कर,
पर मेरी मोहब्बतों को कोई, समझता क्यों नहीं
हर किसी के रंजोग़म को, समझता हूँ मैं अपना,
पर मेरी ख़्वाहिशों को कोई, समझता क्यों नहीं
बहुत कुछ सहा है मैंने, अपने वजूद की खातिर,
मगर मेरी आफतों को कोई, समझता क्यों नहीं
लगता है कि कपट ही कानून है, दुनिया का अब
यारो ईश्वर के उसूलों को कोई, समझता क्यों नहीं
रखता हूँ छुपा के ग़मों को, दिल के अंदर
पर उसकी उलझनों को कोई, समझता क्यों नहीं
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